Tuesday 20 December 2011

।। श्री राम स्तुति ।।

॥श्री गणेशाय नमः॥

श्री रामचन्द्र कृपालु भजु मन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज-लोचन, कंज-मुख, कर-कंज, पद कंजारुणं॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि, नवनील नीरद सुन्दरं।
पट पीत मानहु तड़ित रुचि शुचि नौमि जनक-सुतावरं॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव-दैत्य-वंश-निकन्दनं।
रघुनन्द आनन्दकन्द कोशलचन्द दशरथ-नन्दनं॥
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानुभुज शर-चाप-धर, संग्राम-जित-खरदूषणं॥
इति वदति तुलसीदास शंकर-शेष-मुनि-मन-रंजनं।
मम हृदय-कंज-निवास कुरु, कामादि खल-दल-गंजनं॥
मनु जाहिं राचेउ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर साँवरो।
करुणा निधान सुजान सीलु सनेहु जानत रावरो॥
एहि भाँति गौरि असीस सुनि सिय सहित हियँ हरषीं अली।
तुलसी भवानिहि पूजि पुनि पुनि मुदित मन मंदिर चली॥

(सो०)
जानि गौरि अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल बाम अंग फरकन लगे॥

॥ सियावर रामचन्द्र की जय ॥

।। गुरु गोबिंद सिंह जी रचित श्री काली स्तुति ।।


देहि  शिवा बर मोहे ईहे, शुभ कर्मन ते कबहुं न टरौं
न डरौं अरि सौं जब जाय लड़ौं, निश्चय कर अपनी जीत करौं,

अरु सिख हों आपने ही मन कौ इह लालच हउ गुन तउ उचरों,
जब आव की अउध निदान बनै अति ही रन मै तब जूझ मरों ॥ 

भाल निपट विशाल शशिमृग मीन खंजन लोचनी, 
भाल बदन विशाल कोमल सकल विध्न विमोचनी । 
सिंह वाहिनी धनुष धारिणी कनक सेवत सोहिनी, 
रूण्ड माल अरोल राजत् मुनिन के मन मोहिनी । 

एक रूप अनेक तेरो मैया गुणन की गिनती नहीं, 
कछु ज्ञान अतः ही सुजान भक्तन भाव से विनती करी । 
वर वेष अनूठा खड़ग खप्पर अभय अंकुश धारिणी, 
कर काज लाज जहाज जननी जनन के हित कारिणी । 

मंद हास प्रकाश चहूं दिस विंध्य वासिनी गाईये, 
क्रोध तज अभिमान परिहर दुष्ट बुद्धि नसाईये । 
उठत बैठत चलत सोवत बार बार मनाईये, 
चण्ड मुण्ड विनाशिनी जी के चरण हित चित्त लाईये । 

चंद्र फल और वृंद होते अधिक आनंद रूप हैं, 
सर्व सुख दाता विधाता दर्श पर्श अनूप हैं । 
तू योग भोग विलासिनी शिव पार्श्व हिम गिरी नंदिनी, 
दुरत तुरत निवारिणी जग तारिणी अद्य खंजिनी । 

आदि माया ललित काया प्रथम मधु कैटभ छ्ले, 
त्रिभुवन भार उतारवे को महा महिषासुर मले । 
इंद्र चंद्र कुबेर वरूणो सुरन के आनंद भये, 
भुवन चौदह मैया दश दिशन में सुनत ही सब दुख गये । 

धूम्रलोचन भस्म कीनो मैया क्रोध के ‘हुँ’कार सों, 
हनी है सेना मैया सकल ताकी सिंह के भभकार सों । 
चण्ड मुण्ड प्रचण्ड दोऊ मैया प्रवल से अति भ्रष्ट हैं, 
मुण्ड जिनके किए खण्डन असुर मण्डल दुष्ट हैं । 

रक्तबीज असुर अधर्मी आयो हैं दल जोड़ के, 
शोर कर मरवे को धायो कियो रण घनघोर से । 
जय जय भवानी युक्ति ठानी सर्व शक्ति बुलाईके, 
महा शुम्भ निशुम्भ योद्धा हन्यो खड़ग् बजाईके । 

परस्पर जब युद्ध माच्यो दिवस सों रजनी भई, 
दास कारण असुर मारे मैया पुष्प घन वर्षा भई । 
चित्त लाई चंडी चरित्र पढ़त और सुनत जो निसदिन सदा, 
पुत्र मित्र कलात्र सुख सों दुख न आवे डिग कदा । 

भुक्ति मुक्ति सुबुद्धि बहुधन धान्य सुख संपत्त लिए, 
शत्रु नाश प्रकाश दुनिया आनंद मंगल जन्म लहें
भाल निपट विशाल शशिमृग मीन खंजन लोचनी, 
भाल बदन विशाल कोमल सकल विध्न विमोचनी । 

सिंह वाहिनी धनुष धारिणी कनक सेवत सोहिनी, 
रूण्ड माल अरोल राजत् मुनिन के मन मोहिनी । 
एक रूप अनेक तेरो मैया गुणन की गिनती नहीं, 
कछु ज्ञान अतः ही सुजान भक्तन भाव से विनती करी । 

वर वेष अनूड़ा खड़ग खप्पर अभय अंकुश धारिणी, 
कर काज लाज जहाज जननी जनन के हित कारिणी । 
मंद हास प्रकाश चहूं दिस विंध्य वासिनी गाईये, 
क्रोध तज अभिमान परिहर दुष्ट बुद्धि नसाईये । 

उठत बैठत चलत सोवत बार बार मनाईये, 
चण्ड मुण्ड विनाशिनी जी के चरण हित चित्त लाईये । 
चंद्र फल और वृंद होते अधिक आनंद रूप हैं, 
सर्व सुख दाता विधाता दर्श पर्श अनूप हैं । 

तू योग भोग विलासिनी शिव पार्श्व हिम गिरी नंदिनी, 
दुरत तुरत निवारिणी जग तारिणी अद्य खंजिनी । 
आदि माया ललित काया प्रथम मधु कैटभ छ्ले, 
त्रिभुवन भार उतारवे को महा महिषासुर मले । 

इंद्र चंद्र कुबेर वरूणो सुरन के आनंद भये, 
भुवन चौदह मैया दश दिशन में सुनत ही सब दुख गये । 
धूम्रलोचन भस्म कीनो मैया क्रोध के ‘हुँ’कार सों, 
हनी है सेना मैया सकल ताकी सिंह के भभकार सों । 

चण्ड मुण्ड प्रचण्ड दोऊ मैया प्रवल से अति भ्रष्ट हैं, 
मुण्ड जिनके किए खण्डन असुर मण्डल दुष्ट हैं । 
रक्तबीज असुर अधर्मी आयो हैं दल जोड़ के, 
शोर कर मरवे को धायो कियो रण घनघोर से । 

जय जय भवानी युक्ति ठानी सर्व शक्ति बुलाईके, 
महा शुम्भ निशुम्भ योद्धा हन्यो खड़ग् बजाईके । 
परस्पर जब युद्ध माच्यो दिवस सों रजनी भई, 
दास कारण असुर मारे मैया पुष्प घन वर्षा भई । 

चित्त लाई चंडी चरित्र पढ़त और सुनत जो निसदिन सदा, 
पुत्र मित्र कलात्र सुख सों दुख न आवे डिग कदा । 
भुक्ति मुक्ति सुबुद्धि बहुधन धान्य सुख संपत्त लिए, 
शत्रु नाश प्रकाश दुनिया आनंद मंगल जन्म लहें 
 
 

Thursday 15 December 2011

II गुरु स्तुति:II


 II गुरु स्तुति:II
 
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
अज्ञान तिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जन शलाकया।चक्षुरून्मीलितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
 
गुरूर्ब्रह्मा गुरूर्विष्णुः गुरूर्देवो महेश्वरः।गुरू साक्षात परंब्रह्म तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
       स्थावरं जंगमं व्याप्तं यत्किञ्चित् सचराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरूवे नमः॥
 
चिन्मयं व्यापितं सर्वं त्रैलोक्यं सचराचरम् ।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
सर्वश्रुति शिरोरत्न विराजित पदाम्बुजः।वेदान्ताम्बुज सूर्याय तस्मै श्री गुरवे नमः॥
 
चैतन्य शाश्वतं शान्तं व्योमातीतं निञ्जनः।बिन्दु नाद कलातीतःतस्मै श्री गुरवे नमः॥
       ज्ञानशक्ति समारूढःतत्त्व माला विभूषितम्।भुक्ति मुक्ति प्रदाता च तस्मै श्री गुरवे नमः॥
 
अनेक जन्म सम्प्राप्त कर्म बन्ध विदाहिने।आत्मज्ञान प्रदानेन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
शोषणं भव सिन्धोश्च ज्ञापनं सार संपदः।गुरोर्पादोदकं सम्यक् तस्मै श्री गुरवे नमः॥
 
न गुरोरधिकं त्तत्वं न गुरोरधिकं तपः।तत्त्व ज्ञानात् परं नास्ति तस्मै श्री गुरवे नमः॥
       ध्यानमूलं गुरोर्मूर्तिः पूजामूलं गुरोर्पदम् ।मन्त्रमूलं गुरोर्वाक्यं मोक्षमूलं गुरोर्कृपा॥
 
ब्रह्मानन्दं परमसुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिं।द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्त्वमस्यादिलक्षयम्॥
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वधीसाक्षिभूतं।भावातीतं त्रिगुणरहितं सद् गुरूं तन्नमामि॥
 
अखण्डमण्डलाकारं व्याप्तं येन चराचरम्।तत्पदं दर्शितं येन तस्मै श्री गुरवे नमः॥
      ध्यानं सत्यं पूजा सत्यं सत्यं देवो निरञ्जनम्।गुरिर्वाक्यं सदा सत्यं सत्यं देव उमापतिः॥
 

Sunday 11 December 2011

II बजरंग बाण II

II बजरंग बाण II

'दोहा'

           निश्चय प्रेम प्रतीति ते, बिनय करैं सनमान।
           तेहि के कारज सकल शुभ, सिद्ध करैं हनुमान॥
                    

'चौपाई'

         जय हनुमंत संत हितकारी  । सुन लीजै प्रभु अरज हमारी॥
         जन के काज बिलंब न कीजै। आतुर दौरि महा सुख दीजै॥
         जैसे कूदि सिंधु महिपारा   । सुरसा बदन पैठि बिस्तारा॥
         आगे जाय लंकिनी रोका   । मारेहु लात गई सुरलोका॥
         जाय बिभीषन को सुख दीन्हा। सीता निरखि परमपद लीन्हा॥
         बाग उजारि सिंधु महँ बोरा । अति आतुर जमकातर तोरा॥
         अक्षय कुमार मारि संहारा  । लूम लपेटि लंक को जारा॥
         लाह समान लंक जरि गई  । जय जय धुनि सुरपुर नभ भई॥
         अब बिलंब केहि कारन स्वामी। कृपा करहु उर अंतरयामी॥
         जय जय लखन प्रान के दाता। आतुर ह्वै दुख करहु निपाता॥
         जै हनुमान जयति बल-सागर। सुर-समूह-समरथ भट-नागर॥
         ॐ हनु हनु हनु हनुमंत हठीले। बैरिहि मारु बज्र की कीले॥
         ॐ ह्नीं ह्नीं ह्नीं हनुमंत कपीसा। ॐ हुं हुं हुं हनु अरि उर सीसा॥
         जय अंजनि कुमार बलवंता  । शंकरसुवन बीर हनुमंता॥
         बदन कराल काल-कुल-घालक। राम सहाय सदा प्रतिपालक॥
         भूत, प्रेत, पिसाच निसाचर । अगिन बेताल काल मारी मर॥
         इन्हें मारु, तोहि सपथ राम की। राखु नाथ मरजाद नाम की॥
         सत्य होहु हरि सपथ पाइ कै। राम दूत धरु मारु धाइ कै॥
         जय जय जय हनुमंत अगाधा। दुख पावत जन केहि अपराधा॥
         पूजा जप तप नेम अचारा। नहिं जानत कछु दास तुम्हारा॥
         बन उपबन मग गिरि गृह माहीं। तुम्हरे बल हौं डरपत नाहीं॥
         जनकसुता हरि दास कहावौ। ताकी सपथ बिलंब न लावौ॥
         जै जै जै धुनि होत अकासा। सुमिरत होय दुसह दुख नासा॥
         चरन पकरि, कर जोरि मनावौं। यहि औसर अब केहि गोहरावौं॥
         उठु, उठु, चलु, तोहि राम दुहाई। पायँ परौं, कर जोरि मनाई॥
         ॐ चं चं चं चं चपल चलंता। ॐ हनु हनु हनु हनु हनुमंता॥
         ॐ हं हं हाँक देत कपि चंचल। ॐ सं सं सहमि पराने खल-दल॥
         अपने जन को तुरत उबारौ। सुमिरत होय आनंद हमारौ॥
         यह बजरंग-बाण जेहि मारै। ताहि कहौ फिरि कवन उबारै॥
         पाठ करै बजरंग-बाण की। हनुमत रक्षा करै प्रान की॥
         यह बजरंग बाण जो जापैं। तासों भूत-प्रेत सब कापैं॥
         धूप देय जो जपै हमेसा। ताके तन नहिं रहै कलेसा॥
                    

दोहा
         उर प्रतीति दृढ़, सरन ह्वै, पाठ करै धरि ध्यान।
         बाधा सब हर, करैं सब काम सफल हनुमान॥


II श्री हनुमान चालिसा II

II श्री हनुमान चालिसा II

दोहा :
 
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनऊँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुद्धि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥

चौपाई :
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
रामदूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै।
संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बन्दन॥
विद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे। रामचंद्र के काज सँवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बड़ाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा॥
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
जुग सहस्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं। जलधि लाँघि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रक्षक काहू को डर ना॥
आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हाँक तें काँपै॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै॥
नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट तें हनुमान छुड़ावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा।
और मनोरथ जो कोई लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम-जनम के दुख बिसरावै॥
अन्तकाल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥
और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जै जै जै हनुमान गोसाईं। कृपा करहु गुरुदेव की नाईं॥
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महा सुख होई॥
जो यह पढ़ै हनुमान चालीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय मँह डेरा॥

दोहा :
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥ 


Sunday 4 December 2011

II श्रीगजेन्द्रमोक्ष II

 II श्रीगजेन्द्रमोक्ष II

||श्रीबादरायणिरुवाच ||

एवं व्यवसितो बुद्ध्या समाधाय मनो हृदि
जजाप परमं जाप्यं प्राग्जन्मन्यनुशिक्षितम ||

|| श्रीगजेन्द्र उवाच ||

ओं नमो भगवते तस्मै यत एतच्चिदात्मकम
पुरुषायादिबीजाय परेशायाभिधीमहि ||

यस्मिन्निदं यतश्चेदं येनेदं य इदं स्वयम
योऽस्मात्परस्माच्च परस्तं प्रपद्ये स्वयम्भुवम ||

यः स्वात्मनीदं निजमाययार्पितं क्वचिद्विभातं क्व च तत्तिरोहितम
अविद्धदृक्साक्ष्युभयं तदीक्षते स आत्ममूलोऽवतु मां परात्परः ||

कालेन पञ्चत्वमितेषु कृत्स्नशो लोकेषु पालेषु च सर्वहेतुषु
तमस्तदासीद्गहनं गभीरं यस्तस्य पारेऽभिविराजते विभुः ||

न यस्य देवा ऋषयः पदं विदुर्जन्तुः पुनः कोऽर्हति गन्तुमीरितुम
यथा नटस्याकृतिभिर्विचेष्टतो दुरत्ययानुक्रमणः स मावतु ||

दिदृक्षवो यस्य पदं सुमङ्गलं विमुक्तसङ्गा मुनयः सुसाधवः
चरन्त्यलोकव्रतमव्रणं वने भूतात्मभूताः सुहृदः स मे गतिः ||

न विद्यते यस्य च जन्म कर्म वा न नामरूपे गुणदोष एव वा
तथापि लोकाप्ययसम्भवाय यः स्वमायया तान्यनुकालमृच्छति ||

तस्मै नमः परेशाय ब्रह्मणेऽनन्तशक्तये
अरूपायोरुरूपाय नम आश्चर्यकर्मणे ||

नम आत्मप्रदीपाय साक्षिणे परमात्मने
नमो गिरां विदूराय मनसश्चेतसामपि ||

सत्त्वेन प्रतिलभ्याय नैष्कर्म्येण विपश्चिता
नमः कैवल्यनाथाय निर्वाणसुखसंविदे ||

नमः शान्ताय घोराय मूढाय गुणधर्मिणे
निर्विशेषाय साम्याय नमो ज्ञानघनाय च ||

क्षेत्रज्ञाय नमस्तुभ्यं सर्वाध्यक्षाय साक्षिणे
पुरुषायात्ममूलाय मूलप्रकृतये नमः ||

सर्वेन्द्रियगुणद्रष्ट्रे सर्वप्रत्ययहेतवे
असता च्छाययोक्ताय सदाभासाय ते नमः ||

नमो नमस्तेऽखिलकारणाय निष्कारणायाद्भुतकारणाय
सर्वागमाम्नायमहार्णवाय नमोऽपवर्गाय परायणाय ||

गुणारणिच्छन्नचिदुष्मपाय तत्क्षोभविस्फूर्जितमानसाय
नैष्कर्म्यभावेन विवर्जितागम स्वयंप्रकाशाय नमस्करोमि ||

मादृक्प्रपन्नपशुपाशविमोक्षणाय मुक्ताय भूरिकरुणाय नमोऽलयाय
स्वांशेन सर्वतनुभृन्मनसि प्रतीत प्रत्यग्दृशे भगवते बृहते नमस्ते ||

आत्मात्मजाप्तगृहवित्तजनेषु सक्तैर्दुष्प्रापणाय गुणसङ्गविवर्जिताय
मुक्तात्मभिः स्वहृदये परिभाविताय ज्ञानात्मने भगवते नम ईश्वराय ||

यं धर्मकामार्थविमुक्तिकामा भजन्त इष्टां गतिमाप्नुवन्ति
किं चाशिषो रात्यपि देहमव्ययं करोतु मेऽदभ्रदयो विमोक्षणम ||

एकान्तिनो यस्य न कञ्चनार्थं वाञ्छन्ति ये वै भगवत्प्रपन्नाः
अत्यद्भुतं तच्चरितं सुमङ्गलं गायन्त आनन्दसमुद्रमग्नाः ||

तमक्षरं ब्रह्म परं परेशमव्यक्तमाध्यात्मिकयोगगम्यम
अतीन्द्रियं सूक्ष्ममिवातिदूरमनन्तमाद्यं परिपूर्णमीडे ||

यस्य ब्रह्मादयो देवा वेदा लोकाश्चराचराः
नामरूपविभेदेन फल्ग्व्या च कलया कृताः ||

यथार्चिषोऽग्नेः सवितुर्गभस्तयो निर्यान्ति संयान्त्यसकृत्स्वरोचिषः
तथा यतोऽयं गुणसम्प्रवाहो बुद्धिर्मनः खानि शरीरसर्गाः ||

स वै न देवासुरमर्त्यतिर्यङ्न स्त्री न षण्ढो न पुमान्न जन्तुः
नायं गुणः कर्म न सन्न चासन्निषेधशेषो जयतादशेषः ||

जिजीविषे नाहमिहामुया किमन्तर्बहिश्चावृतयेभयोन्या
इच्छामि कालेन न यस्य विप्लवस्तस्यात्मलोकावरणस्य मोक्षम ||

सोऽहं विश्वसृजं विश्वमविश्वं विश्ववेदसम
विश्वात्मानमजं ब्रह्म प्रणतोऽस्मि परं पदम ||

योगरन्धितकर्माणो हृदि योगविभाविते
योगिनो यं प्रपश्यन्ति योगेशं तं नतोऽस्म्यहम ||

नमो नमस्तुभ्यमसह्यवेग शक्तित्रयायाखिलधीगुणाय
प्रपन्नपालाय दुरन्तशक्तये कदिन्द्रियाणामनवाप्यवर्त्मने ||

नायं वेद स्वमात्मानं यच्छक्त्याहंधिया हतम
तं दुरत्ययमाहात्म्यं भगवन्तमितोऽस्म्यहम ||

श्रीशुक उवाच ||

एवं गजेन्द्रमुपवर्णितनिर्विशेषं
ब्रह्मादयो विविधलिङ्गभिदाभिमानाः
नैते यदोपससृपुर्निखिलात्मकत्वात
तत्राखिलामरमयो हरिराविरासीत ||

तं तद्वदार्तमुपलभ्य जगन्निवासः
स्तोत्रं निशम्य दिविजैः सह संस्तुवद्भिः
छन्दोमयेन गरुडेन समुह्यमानश
चक्रायुधोऽभ्यगमदाशु यतो गजेन्द्रः ||

सोऽन्तःसरस्युरुबलेन गृहीत आर्तो
दृष्ट्वा गरुत्मति हरिं ख उपात्तचक्रम
उत्क्षिप्य साम्बुजकरं गिरमाह कृच्छ्रान
नारायणाखिलगुरो भगवन्नमस्ते ||

तं वीक्ष्य पीडितमजः सहसावतीर्य
सग्राहमाशु सरसः कृपयोज्जहार
ग्राहाद्विपाटितमुखादरिणा गजेन्द्रं
संपश्यतां हरिरमूमुचदुच्छ्रियाणाम ||


Rudrabhishekam and Baby Monkey

This is true happening, and a very much personal experience. I am a conservative person and strongly believe in our ancient Vedic Civiliza...